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सहज संवाद / डा. रवीन्द्र अरजरिया
शिक्षा को संस्कारों से जोडने, उन्हें जीवन में उतारने और राष्ट्रीयता को समर्पित रहने की प्रेरणायें वातावरण में घोलने की आज महती आवश्यकता महसूस होने लगी है। प्रमाण पत्रों तक सीमित रहने वाली पद्धतियों को एक बार फिर समीक्षा की आवश्यकता है। वर्तमान परिस्थितियों में चुनौतियों का ऊपर उठता ग्राफ भविष्य के भयावह काल की ओर इशारा करता हैं। आधुनिकता के आवरण में परोसी जाने वाली पाश्चात्य संस्कृति ने विद्यालय को स्कूल, शिक्षा को एजूकेशन और विद्यार्थी को स्टूडेन्ट बना दिया है।
बदलते मापदण्डों पर रेखांकित किये जाने वाले प्रश्नों ने हाहाकारी क्रन्दन शुरू कर दिया। भोपाल में होने के कारण हमें उत्तरों की तलाश भी यहीं करना थी। तभी हमारे मस्तिष्क में शिवाजी नगर का बंगला नम्बर सी-13 कौंधा और साकार होने लगा उसमें मौजूद रोशन लाल सक्सेना जी का व्यक्तित्व। उनसे मिलने की अनुमति ली और बिना समय गंवाये उनके पास पहुंच गया। मखमली ठंड में गुनगुनाती सूरज की किरणों के आनन्द में मगन वे लान में बैठे अन्तरिक्ष को निहार रहे थे। हमने उनके निकट पहुंच कर अभिवादन किया। चिंतन पर पूर्णविराम लगाकर उन्होंने आत्मिक स्वीकारोक्ति ही नहीं दी बल्कि उत्साहवर्धक स्वागत भी किया।
हमने निकट पडी कुर्सी पर आसन जमाया। कुशलक्षेम के आदान प्रदान के बाद हमने शिक्षा के वर्तमान स्वरूप, अंग्रेजियत की अंधी होड और देश की थाथी में समाये संस्कारों का पिण्डदान करने वाले संस्थानों के आइने में भविष्य की तस्वीर दिखाने का निवेदन किया। जीवन का 86बसंत देख चुका मुखमण्डल गम्भीर हो उठा। अतीत के घटनाक्रम चलचित्र की तरह चलने लगे। समय पीछे पहुंच चुका था और तारीख थी 12फरवरी 1959। विन्ध्य क्षेत्र का रीवा कालेज, गणित विभाग और व्याख्याता की भूमिका के रूप में कार्य यज्ञ को पूर्णाहुति तक पहुंचाने वाले रोशनलाल जी को सुदर्शन जी ने शिक्षा को संस्कारों की सुगन्ध देने का दायित्व सौंपा। चिन्तन से उपजी कार्य योजना ने समसामयिक मूल्यों को अंगीकार किया। श्रम ने संकल्प को लक्ष्य भेदन का साहस दिया।
मातृभाषा से लेकर राष्ट्रभक्ति तक को समर्पित आदर्शों ने परिणामों के परचम फहराने शुरू कर दिये। सरस्वती शिशु मंदिरों की स्थापना का क्रम चल निकला। लोगों का रुझान देशी सादगी की ओर बढने लगा। चकाचौंध वाली कथित आधुनिकता को प्रतिस्पर्धा मिलने लगी। बुंदेलखण्ड, विंध्य, महाकौशल, मालवा, चम्बल, छत्तीसगढ सहित सम्पूर्ण मध्य भारत में शिक्षा की पुरातन परिभाषायें नये रूप में अवतरित होने लगीं। स्मृतियों की गहराई से बाहर निकालने की गरज से हमने अपने प्रश्नों को एक बार फिर दोहराया। अतीत ने उन्हें वर्तमान का अहसास कराया। स्वाधीनता के बाद के परिदृश्यों का संदर्भ लेकर मानसिक दासता को विश्लेषित किया गया। उन्होंने राष्ट्रभाषा हिन्दी की देश में हो रही दुर्दशा और गुलामी की गंध फैलाती अंग्रेजी को आडे हाथों लिया।
सन् 1965 तक हिन्दी को राष्ट्रीय संवाद में पूरी तरह स्थापित करने वाले सरकारी आश्वासनों की तार-तार होती स्थिति को उजागर करते हुए उन्होंने कहा कि रूस, जापान, चीन, फ्रांस जैसे अनेक देशों ने अपनी राष्ट्र भाषा की दम पर सफलता के नये कीर्तिमान स्थापित किये हैं। विदेशी भाषा में देशी संस्कृति का वैभव विस्तार कपोल कल्पित कामनाओं से अधिक अस्तित्व नहीं रखतीं। हमारे विश्व बंधुत्व के संस्कार, संस्कृति और संबंधों की पुनर्स्थापना सामूहिकता के कल्याणार्थ की जाना चाहिये। हमें अपनी मानसिक प्रकृति बदलना होगी तभी सकारात्मक वातावरण का निर्माण होगा।
शासकीय योजनाओं के स्थलीय क्रियान्वयन पर जननियंत्रण आवश्यक है तभी अपेक्षित परिणामों की वास्तविकता सामने आयेगी अन्यथा आंकडों की बाजीगरी में कागजी सफलता ही हाथ लगेगी। आज सुखद भविष्य हेतु शिक्षा के मापदण्डों की पुनर्समीक्षा आवश्यक हो गई है ताकि वर्तमान चुनौतियों को धता बताया जा सके। बातचीत चल ही रही थी कि बंगले के अन्दर से आकर एक युवक ने गर्मागर्म चाय के प्याले सामने रखी तख्ती पर रख दिये। व्यवधान ने गति अवरोध का काम किया परन्तु हमें अपने प्रश्नों का लगभग उत्तर मिल चुका था सो चाय के उपरांत फिर मिलने के आश्वासन के साथ हमने जाने की अनुमति ली। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नये मुद्दे के साथ फिर मुलाकात होगी। तब तक के लिए खुदा हाफिज।
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