DR RAVINDRA ARJARIYA |
अनुभव से अनुभूतियों तक पहुंच चुके हैं महाराज छत्रसाल
सहज संवाद / डा. रवीन्द्र अरजरिया
संस्कृति, संस्कार और संरचना की ऐतिहासिक धरोहर को संजोने का प्रयास युगों से किया जाता रहा है। अतीत की सुखद स्मृतियों के प्रेरणादायक प्रसंग, आने वाले कल का निर्माण करने की आधारशिला रखते हैं।
जीवन शैली से लेकर स्वीकारे गये सिद्धान्तों तक के आइने में आदर्श का प्रतिबिम्ब निरंतर परिलक्षित होता रहे, इस हेतु प्रतिमाओं की स्थापना करने का सिलसिला चल निकला। बुंदेलखण्ड केसरी महाराज छत्रसाल की विशाल प्रतिमा की स्थापना का आमंत्रण प्राप्त हुआ। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरसंघ चालक डा. मोहन भागवत के मुख्य आतिथ्य में लोकार्पण समारोह की रूपरेख को कार्ड में विस्तार दिया गया था।
प्रतिमाओं की सार्वजनिक स्थलों पर स्थापना, भावी पीढी को गुजरे हुए कल के कथानकों से अवगत कराने का सराहनीय प्रयास होता है। समारोह के विवरण को पढ ही रहा था कि तभी फोन की घंटी बज उठी। बुंदेलखण्ड के आंदोलन पुरुष के नाम से चर्चित जगदम्बा निगम जी का फोन था। पूर्व विधायक एवं समाजसेवी की वर्तमान भूमिका के सशक्त पहलुओं ने उन्हें, जनसमस्याओं के लिए निरंतर आन्दोलनरत रहने के लिए हमेशा बाध्य किया।
आन्दोलन के माध्यम से हर समस्या का समाधान करवाने में महारत हासिल करने के कारण ही उन्हें वहां की आवाम आन्दोलन पुरुष के रूप में सम्मान देती है। उन्होंने सुबह की चाय पर आमंत्रित किया। इस आमंत्रण पर कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए हमने समय निर्धारित करने का बात कही। निश्चित समय पर हम आमने-सामने थे। हमारा उत्साहवर्धक स्वागत किया। कुशलक्षेम पूछने-बताने की औपचारिकताओं से बाहर पहुंचते ही हमने प्रतिमाओं की स्थापना पर उनका दृष्टिकोण जानना चाहा।
बचपन, युवा और प्रौढ की पायदानो को पार करके अनुभव के चरम पर बैठे आन्दोलन पुरुष ने एक लम्बी सांस खींची। अंतरिक्ष को घूरा। ललाट की रेखायें उनके चिन्तन भाव में पहुंचते व्यक्तित्व की चुगली कर गई। कुछ क्षण शांत रहने के उपरान्त उन्होंने कहा कि व्यक्तिगत आदर्श को सामूहिक स्वीकारोक्ति के उपरान्त स्थायित्व प्रदान करना ही प्रतिमा स्थापना का वास्तविक उद्देश्य होता है। प्रतिमा की मूक उपस्थिति उसके जीवन काल के समग्र घटनाक्रम को प्रकाशित करती है। मूर्ति में समाया व्यक्तित्व प्रतिपल जीवित रहता है। उसका कृतित्व और व्यक्तित्व अनुकरणीय बनकर भावी पीढी का मार्गदर्शन करता है।
वैचारिक आन्दोलन की जननी के रूप में स्थापित होती है प्रतिमा। वैचारिक शब्द को रेखांकित करते हुए हमने बीच में ही प्रश्न कर दिया। लेनिन की मूर्ति का प्रकरण, अन्य मूर्तियों पर प्रतिक्रिया स्वरूप उभरा। सामांजस्यपूर्ण वातावरण को मूर्ति के विवाद ने असहज कर दिया। इस परिपेक्ष में आपका नजरिया क्या है। विचारधारा की स्थापना की सार्थकता को निरूपित करते हुए उन्होंने कहा कि प्रतिमा को निश्चय ही प्रतिमानों का प्रतिनिधि माना जाता है। यही प्रतिमान आवश्यकता की कसौटी से गुजरकर लोकप्रियता के ग्राफ पर अपनी आमद दर्ज करते हैं। मूर्तियों की स्थापना एक सार्थक पहल है। उनके मौन होते ही हमने महाराज छत्रसाल की मूर्ति के लोकार्पण समारोह के विशेष संदर्भ में टटोलना शुरू किया। निर्विवाद रूप से महाराज छत्रसाल का कृतित्व और व्यक्तित्व वर्तमान समय में प्रेरणा का प्रकाश स्तम्भ है।
जुझारूपन, राष्ट्रप्रेम और समानता का भाव उनके व्यक्तित्व के प्रमुख आकर्षण हैं। उनकी 52 शार्यगाथाओं को 52 फुट की प्रतिमा के रूप में स्थापित करने का प्रयास निश्चित ही सार्थकता की दिशा में एक महात्वपूर्ण पहल है जिसे स्वीकारोक्ति ही नहीं मिलना चाहिये बल्कि अनुकरणीय आदर्श के रूप में आत्मग्राह भी होना चाहिये। क्षेत्रीय परिधि से निकलकर विस्त्रित भूभाग तक पहुंचने वाले महाराज छत्रसाल की आराध्यदेव के रूप में स्थापना होने से संबंधित प्रश्न पर उन्होंने कहा कि कृष्ण प्रणामी सम्प्रदाय ने इतिहास पुरूष से लोकदेव बन चुके बुंदेलखण्ड केसरी को आराध्यदेव के रूप में स्थापित कर दिया है।
कंकरीट से निर्मित मंदिर से लेकर मन मंदिर तक में स्थापना पा चुके महाराज छत्रसाल की आत्मिक ऊर्जा, अन्य शरीरधारियों की जीवन-प्रत्यासा को ऊर्धगामी करने लगी है। अनुभव से अनुभूतियों तक पहुंच चुके हैं महाराज छत्रसाल। चर्चा चल ही रही थी कि तभी नौकर ने एक बडी ट्रे के साथ कमरे में प्रवेश किया। वह मेज पर भोज्य सामग्री सहित चाय के प्याले सजाने लगा। बातचीत में व्यवधान उत्पन्न हुआ किन्तु तब तक हमें इस विषय पर आन्दोलन पुरूष के विचारों की बानगी मिल ही चुकी थी। सो चर्चा को विराम देकर भोज्य पदार्थों को सम्मान देने की गरज से मेज की ओर बढ गये। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नये मुद्दे के साथ फिर मिलेंगे। तब तक के लिए खुदा हाफिज।
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