सहज संवाद / डा. रवीन्द्र अरजरिया
जीवन के दर्शन को अध्यात्म के सर्वमान्य सिद्धान्त के रूप में स्वीकार करना, मानवता की सार्थकता को प्रदर्शित करना है। रामनवमी हो, जन्माष्टमी हो,बाराबफात या गुड फ्राइ डे हो, सभी के साथ खुशी, उल्लास और उत्साह की सुगन्ध वातावरण आत्मिक बना देता है। सभी में स्वयं को और स्वयं में सभी को देखने की इच्छा शक्ति मानव में देवत्व पैदा कर देती है।
ऐसी ही भावनाओं को समाज के कोने-कोने में फैलाने का वृत लेने वाले शिक्षाविद् रमेशचन्द्र अवस्थी से रामनवमी के एक दिन पूर्व मां फूला देवी मंदिर से लौटते समय मुलाकात हो गई। वे हमें अपने आवास पर ले गये। अवस्थी जी को ज्यादातर लोग बैंदों वाले महाराज के नाम से जानते हैं। चर्चाओं का दौर शुरू हुआ अध्यात्म के बहुआयामी विश्लेषण से। उ
न्होंने बताया कि इस विषय के गर्भ में समाज के ही नहीं बल्कि अखिल बृह्माण्ड के अनन्त रहस्य छुपे हैं। किसी भी अध्याय को जब आत्मा से जोड दिया जाता है तो वह अध्यात्म बन जाता है अर्थात जब आत्मा के अन्दर से जिग्यासाओं का समाधान होने लगे तो समझ लेना चाहिये कि अध्यात्म घटित हो रहा है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि आराध्य का आचरण स्वीकारे बिना अध्यात्म में उतरना असम्भव। सभी कार्य किसी न किसी माध्यम से घटित होते हैं।
इन घटनाओं के पीछे की इबारत पढने बाद ही सत्य का भान होता है अन्यथा मनगढन्त तर्कों की मृगमारीचिका में भटकाव के अलावा कुछ भी हाथ नहीं लगता। वर्तमान परिपेक्ष में सामाजिक मानसिकता को टटोलने की गरज से हमने धार्मिक आयोजनों की बाढ, अध्यात्मिक कार्यक्रमों की भरमार और समाज सेवा के लिए होने वाले कार्यों पर टिप्पणी करने का कहा। उनके चेहरे की गम्भीरता और ज्यादा प्रगाढ हो गई।
लम्बी सांस लेकर बुंदेलखण्ड में प्रचलित शब्द भडयाई और भंडारा को केन्द्र बनाकर उन्होंने परिभाषित करना शुरू किया। धर्म, अध्यात्म और समाज सेवा के नाम पर होने वाले 80 प्रतिशत आयोजनों को उन्होंने दिखावे की भावना से ग्रसित बताया जबकि शेष 20 प्रतिशत कार्यक्रम ही सार्थकता की तराजू पर खरे उतरते हैं। जीवन के सूत्र समझाने बहुत आसान होता है परन्तु उन पर चलने बेहद कठिन। पग-पग पर कठिनाइयों के दिग्दर्शन ही नहीं होते बल्कि उनसे दो-दो हाथ भी करना पडते हैं।
मानवता के मुखौटों से स्वार्थ, अहंकार और शोषण के दाग छुपाने वाले लोग अदृश्य रिकार्डर से बच नहीं सकते। सीसीटीवी की तरह प्रकृति का भी एक डाटा रिकार्डर होता है जिसमें अच्छा-बुरा सभी कुछ संकलित होता रहता है। जीवन के एकान्तिक क्षणों में यही रिकार्डर रि-प्ले करने लगता है और अतीत की चाही-अनचाही कुछ स्मृतियां, घटनायें और दृष्टांत सामने आने लगते हैं। मृत्यु के ठीक पहले तो पूरा रि-प्ले दिखाया जाता है। इस अन्तिम रि-प्ले में विश्लेषणात्मक समीक्षा भी होती है जिसके आधार पर शरीरपरक स्थिति से इतर भविष्य निर्धारित होता है।
भविष्य के निर्धारण पर पहुंचते ही हमारे मस्तिष्क में भाग्य और पुरुषार्थ के मध्य झूलती जीवनियां सजीव हो उठी। कौन ज्यादा महात्वपूर्ण है और क्यों, जैसे प्रश्न कौंधने लगे। समाधान को आकार देते हुए उन्होंने कहा कि यह दौंनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। किसी एक के बिना सिक्के के अस्तित्व की कल्पना नहीं की जा सकती। दिन-रात का निर्धारण भाग्य के परिपेक्ष में समझा जा सकता है और स्वयं की दिनचर्या को व्यवस्थित करना पुरूषार्थ है। दिन का महात्वपूर्ण समय सोने में बर्बाद करने वाले भाग्य को कोसने लगे, तो उनका निकम्मापन ही सामने आता है।
देश, काल और परिस्थितियों के अनुरूप मानवीय आचरण करना ही सच्चा पुरुषार्थ है। अभी हमारा संवाद चल ही रहा था कि अवस्थी जी के अनुयायियों का एक दल रामनवमी पर्व पर शुभाशीष लेने के लिए उत्तर प्रदेश से आ गया। संवाद का समापन अनचाहे मन से करना पडा। आगन्तुकों की अवहेलना करना भी मानवीय शिष्टाचार से विरुद्ध होता है। सो हमने इस विषय पर निकट भविष्य में चर्चा करने के आश्वासन के साथ प्रस्थान करने की अनुमति ली। सभी में स्वयं के देखने की इच्छा शक्ति से ही परमानन्द तक पहुंचा जा सकता है।
वास्तविकता में अध्यात्म का अर्थ समान रूप से मानवीयता की स्थापना से लेकर लौकिक-पारलौकिक आनन्द के चरम तक पहुंचता हुआ अनन्त तक विस्तारित है। तो क्यों न हम सब मिलकर मर्यादा पुरषोत्तम श्रीराम के जीवन दर्शन पर स्थापित संस्कारों और संस्कृतियों को आत्मसात करके सामाजिक आनन्द की बयार से अध्यात्म की सुगन्ध बटोर लें। इस बार बस इतना ही। अगले हफ्ते एक नये मुद्दे के साथ फिर मुलाकात होगी, तब तक के लिए खुदा हाफिज।
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