सहज संवाद / डा. रवीन्द्र अरजरिया
समाज के अंतिम छोर पर बैठे व्यक्ति को मुख्यधारा में लाने का प्रयास करने वालों की लम्बी फेरिस्त सरकारी दस्तावेजों में दर्ज है। आंकडों की बाजीगरी करके खुद की पीठ थपथपाने वालों के लिए यह फेरिस्त भले ही महात्वपूर्ण हो परन्तु धरती पर काम करके दायित्वबोध पूर्ण करने का सुख लेने वालों को ऐसे किसी प्रमाण-पत्र की शायद ही कभी आवश्यकता महसूस हुई हो।
हमारे मन-मस्तिष्क में देश के विभिन्न भू-भागों में त्रासदी से लेकर अभावग्रस्त लोगों की दुःख भरी कहानियां मूर्त रूप ले रहीं थी कि तभी स्वाधीनता संग्राम सेनानी एवं पूर्व विधायक गायत्री देवी परमार ने अपनी दो सहयोगियों के साथ हाल में प्रवेश किया। समाज देश की दशा और दिशा पर विचार-मंथन के लिए यह कार्यक्रम आयोजित किया गया था। हमारी नजरें मिली। अभिवादन के आदान-प्रदान की औपचारिकता के बाद वे हमारी ओर ही बढी। कार्यक्रम प्रारम्भ होने में अभी कुछ समय बाकी था, सो हम एक सोफे पर बैठ गये।
चर्चाओं का दौर प्रारम्भ हुआ। उन्हें अतीत की गहराइयों में ले जाकर सम-सामयिक परिस्थितियों के तुलनात्मक अध्ययन के लिए हमने वातावरण तैयार किया। वे अपने जीवन के प्रारम्भिक दिनों में पहुंच गयीं। अध्ययन से लेकर अध्यापन तक के पन्ने उलटने लगे। समय था सन् 1953 का जब विन्ध्य प्रदेश के अन्तर्गत आने वाले छतरपुर में जिले का पहला कन्या हाई स्कूल खुला। अध्यापन के लिए योग्य अध्यापकों की खोज की गई। स्नातक होने के कारण विभागीय पहल शुरू हुई। बचपन से पनप रहा सेवा का भाव अंगडाई लेकर खडा हो गया।
देश के नवनिर्माण में सशक्त कर्णधारों के तैयार करने का दायित्व सम्हाला। जी-जान से जुड गईं बच्चों को संजान-संवारने में। समय के साथ स्थितियां बदलने लगीं। विभागीय दांव-पेंच और अकर्मण्य लोगों के षडयंत्र खुलकर सामने आने लगे। समर्पण पर अनावश्यक नुक्ताचीनी सहनशक्ति से बाहर हो गई। त्याग-पत्र भेजकर नौकरी के बंधन से मुक्त पाई। यह समय था सन् 1957 का, जब मध्य प्रदेश की पहली विधान सभा के लिए तैयारियां की जा रहीं थीं। कांग्रेस की तेज-तर्राट नेता डा. सुशीला नैय्यर को पार्टी के लिए कर्मठ महिलाओं की खोज के लिए भेजा गया था। इसी क्रम में गायत्री जी का नाम उभर कर सामने आया।
पारिवारिक विचार विमर्श के बाद स्वीकारोक्ति दी गई। बडा मलहरा क्षेत्र से पार्टी ने टिकिट दिया। मतदाताओं ने भारी मतों से विजय का ताज पहनाया। बस फिर क्या था शक्ति को सामर्थ मिल गई। क्षेत्र की विकास यात्रा के लिए काम किये जाने लगे। सन् 1957-62 का कार्यकाल पूरा करने के बाद समाज सेवा की धरातली पगदण्डी पर कांटे हटाने का काम हाथ में लिया और जिले की पहली गैर शासकीय संस्था ‘महिला समिति’ के नाम से पंजीकृत करवाई गर्ई, सच्चे सहयोगियों को एक जुट किया गया और गांव-गांव गली-गली के लिए विभिन्न योजनाओं में भागीदारी दर्ज की गई।
अभी वे अतीत में बहुत गहराई तक डूबीं हुईं थीं और हम उनके अनुभवों को वर्तमान स्थितियों के साथ तौलते जा रहे थे। नौकरी पाने से लेकर विधायक के टिकिट पर नाम अंकित करवाने तक की मान्यतायें बदल चुकीं हैं। कार्य शैली से लेकर योग्यता के मापदण्डों तक में जमीन-आसमान का अंतर आ चुकी है। चर्चाओं का दौर चल ही रहा था कि एक वेटर ने काफी की ट्रे हमारे सामने कर दी। शब्दों का प्रवाह कुछ समय के लिए थम सा गया, परन्तु हम कहां मानने वाले थे, सो गैर शासकीय संस्थाओं की कार्यशैलियों और सरकारी दफ्तरों के तंत्र का मुद्दा उठा दिया। गायत्री जी ने एक लम्बी सांस भरी और कहा कि आज मायने ही नहीं बदले बल्कि परिभाषायें भी बदल गई, व्याख्यायें बदल गईं और बदल गयी काम करने की निष्ठामयी प्रणाली।
व्यक्तिगत हित समाज के हितों पर भारी पडने लगे। धरातली परिणामों से ज्यादा कागजी आंकडेबाजी, साइवर का माया जाल और दिखावे की बोलवाला हावी होने लगा है। भाई-भतीजाबाद से लेकर जितने भी वाद है वह सभी रावण के सिरों की तरह बार-बार जीवित हो उठते हैं। ऐसे में वास्तविक काम करने वालों के सामने कठिनाई ही नहीं बल्कि कठिनाइयों के पहाड खडे हो रहे हैं। हमने तो बचपन में ही गोरी सरकार के अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाने की शिक्षा ले ली थी सो इस मुहिम में ही प्रण-प्राण से जुटी हूं। अतीत की करवटों से लेकर वर्तमान के हालातों तक हम पहुंचे ही थे कि मंच से कार्यक्रम के अतिथियों को आवाज दी जाने लगी। हमारे संवाद पर भी पूर्णविराम लगा।
सच्ची बात तो यह है कि समाज सेवा की इन बदलती परिभाषाओं ने हमें हिलाकर रख दिया। अगर यही सच्चाई है, तो एक बार फिर हमें इस अव्यवस्था को पोषित करने वालों के विरुद्ध खडा होने होगा। विश्व-गुरू के सम्मान हेतु देश को देना होगी अग्नि परीक्षा। हमें अपने समर्पण से नई परिभाषायें लिखना होगी तभी हमें हमारा अभीष्ट मिल सकेगा। हम प्रत्यक्ष में कार्यक्रम से मुखातिब थे परन्तु काफी समय तक हमारा मस्तिष्क सामान्य नहीं हो पाया। बार-बार गायत्री जी के कहे शब्द हमें व्यथित कर करते रहे। इस बार बस इतना ही। अगले हफ्ते एक नये मुद्दे के साथ फिर मुलाकात होगी, तब तक के लिए खुदा हाफिज।
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