सहज संवाद / डा. रवीन्द्र अरजरिया
समाज की पुरातन मान्यताओं के साथ आत्मसात करने की स्थितियों को धता बताते हुए नये सिद्धान्तों को सम-सामयिक मापदण्डों पर कीर्तिमान गढने के लिए प्रतिपादित करने वालों में ओशो का नाम अग्रणीय है। मानवीय कथानकों में अतृप्त वासनाओं की परिणति विकृति के रूप में सामने आने वाले दृष्टान्तों से ज्ञान लेकर उसका विश्लेषण, विश्लेषण से प्राप्त निष्कर्ष और निष्कर्ष को समस्या के समाधान के रूप में स्थापित करना सहज नहीं होता। इसी असहज को सहज बनाने वाले ओशो के अन्तः में उपजे क्रांति बीजों का रहस्य जानने की सौभाग्य अपने खजुराहो प्रवास के दौरान मिला।
चंदेलों की सांस्कृतिक राजधानी को पर्यटकों से लेकर जिग्यासुओं तक समकालीन दर्शन और दृष्टि के साथ पहुचाने में माहिर जान-मान गाइड और विचारक गंगा स्वामी से साथ एक लम्बी भेंट उनके होटल में हुई। बुंदेलखण्ड की सांस्कृतिक विरासत पर चल रहे आपसी विचार-विसर्श ने अचानक ओशो-दर्शन की ओर करवट बदल ली। गंगा जी ने एक लम्बा समय ओशो के साथ उनके ओशो के रूप में प्रसिद्धि पाने से पहले गुजारा था। अतृप्त वासनाओं से लेकर मानसिक संताप के अप्रत्यक्ष स्वरूप तक की व्याख्यायें की गईं। परमात्मा के स्वरूप, आत्मा के साथ न्याय और आनन्दित जीवन के सभी पहलुओं को रेखांकित करने वाला प्रश्न अब यक्ष प्रश्न बनने ही वाला था कि गंगा स्वामी ने शब्दों को सहजता से निकालकर गूढता का जामा पहनाना शुरू कर दिया।
चंदेलकालीन मंदिरों में उकेरी गई पाषाण प्रतिमाओं को प्रतीकों के रूप में स्वीकार करते हुए उन्होंने कहा कि आज का समाज जिस साइबर युग की बात करता है, वह तो सनातन है। इस तथ्य को भी नकारा नहीं जा सकता है कि आदि ग्रन्थों की व्याख्यायें देश, काल और परिस्थितियों के अनुसार हर युग में अलग-अलग ढंग से होती रहीं और उन्हें न स्वीकारने वालों का एक वर्ग भी मौजूद रहा। जन्म से नग्न पैदा होने वाले मानव को संस्कार, सामाजिक व्यवस्था और अनुशासन सिखाने का काम पहले से मौजूद पीढी ने किया। इस पीढी ने अपने अनुसार पुरानी पीढी के संस्कारों, सामाजिक व्यवस्था और अनुशासनात्मक अनुबंधों को समय-समय पर संशोधित भी किया परन्तु जैविक आवश्यकताओं, भावनात्मक संवेदनाओं और प्रकृतिजनित कारकों को बदल पाना किसी के बस में नहीं रहा।
ओशो ने एक लम्बा समय खजुराहो के मंदिरों के मध्य अपने शोध में गुजारा। उस दौरान नित नई परिभाषायें गढी जाती, अगले दिन उन्हें नयी व्याख्याओं के साथ जोडा जाता और तब तक यह क्रम चलता रहता जब तक अन्तःकरण की गवाही सत्य की कसौटी पर खरी नहीं उतर जाती। ओशो के सिद्धान्त एक नये जीवन दर्शन के रूप में सामने आये जिसने दिनचर्या से लेकर प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष कारकों को सीधा प्रभावित किया। प्रातःकालीन मैडीटेशन में योग की अति आवश्यक क्रियाओं और पद्धतियों का समावेश संगीत की गति, लय और ताल पर सुव्यवस्थित है। इसी तरह गौरी-शंकर से लेकर संजीवनी मैडीटेशन में आदि ग्रन्थों में वर्णित सूत्रों को ही स्वीकार करके उन्हें ही समयानुरूप जीवन से जोडकर स्थापित किया गया है। प्रकृतिजनित कारकों के आधार पर बदलने वाली मान्यतायें रूढियां बन ही नहीं सकती।
गंगा स्वामी के द्वारा की जा रही विवेचना ने हमारे मस्तिष्क में प्रश्न चिन्ह अंकित करने शुरू कर दिये। शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए दी जाने वाली छूट से सामाजिक अनुशासन के उलंघन की संभावनाओं पर उत्तर तलाशने की कोशिश की। शांत भाव से आकाश की ओर निहारते हुए उन्होंने कहा कि आदर्श व्यवस्था की कल्पना करना, मृगमारीचिका के पीछे भागने जैसा ही है। शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति के बिना संतुलित जीवन की स्थापना, असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है। समाज के पुरातन सिद्धान्तों को ताक में रखकर भी लोग अपने सुख को कथित अपराध की श्रेणी तक पहुंचकर प्रप्त करने से नहीं चूकते है। आदर्श वाक्यों की कौन कहे अनेक स्थापित हस्ताक्षरों ने विवाह रहित जीवन को कुंवारापन न कहते हुए केवल अविवाहित शब्द पर सहमति व्यक्त की।
ऐसे में यह तो स्पष्ट हो जाता है कि शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति मान्य परिवेश में प्राप्त न होने पर अमान्य तरीकों से हर युग में प्राप्त की जाती रही। संगीत की रागात्मक संवेदनायें, नृत्य के साथ व्यायाम का समुच्चय और मजबूरी में दबाकर रखी गईं भावनाओं का प्रत्यक्षीकरण कर देने से विकृति नहीं बल्कि नवीन ऊर्जा का संचार होने लगता है। वैज्ञानिक विश्लेषण आज के लिए भले ही अभूतपूर्व उपलब्धि हों परन्तु वे पुरातन स्वरूप के आस-पास भी नहीं भटक पाते। ओशो ने वैज्ञानिकवाद से कई कदम आगे का सफर तय करके जीवन को आनन्दित करने वाले कारकों को खोजा, उन्हें संतुलित स्वरूप में संजोया और समाज के सामने प्रस्तुत किया। आनन्दित जीवन में ऊर्जा का संचार स्वमेव ही होता है।
देश-विदेश में एक नये युग की शंखनाद ओशो ने किया है यह कहना अतिशयोक्ति न होगा। अभी बातचीत चल ही रही थी कि गंगा स्वामी का फोन घनघना उठा। विदेशी पर्यटकों का एक ग्रुप उनकी प्रतीक्षा में था। गंगा स्वामी की व्यवसायिक कठिनाई को ध्यान में रखते हुए हमने तत्काल विदा होने की अनुमति मांगी। इसके पहले कि वे संकोच की बेडियों में जकडेकर किंकर्तव्यविभूढ होते हमने उनका हाथ दबाया और बिना देर किये होटल की मुख्य द्वार की ओर कदम बढा दिया। इस बार बस इतना ही। अगले हफ्ते एक नये मुद्दे के साथ फिर मुलाकात होगी, तब तक के लिए खुदा हाफिज।
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