सहज संवाद / डा. रवीन्द्र अरजरिया
वैभव की पराकाष्ठा को दरिद्रता की न्यूनतम सीमा के साथ मिलाने की कहानियां आज भी देश के ग्रामीण अंचल में कही-सुनी जातीं हैं। अतीत की यह अतिआदर्शवादी मान्यता वर्तमान में हाशिये पर पहुंच कर लुप्तप्राय हो गई है। समदर्शी भाव के साथ संत-जीवन स्वीकारने वाले अनेक लोगों ने धर्म-तंत्र को सीढ बनाकर राज-तंत्र, व्यापार-तंत्र जैसे क्षेत्रों में भागीदारी दर्ज करना शुरू कर दी है।
त्याग, समर्पण, साधना, तपस्या जैसी मनोभूमि का संकल्प लेने वाला जब सांसारिक मोह के वशीभूत होकर सत्ता में भागीदारी दर्ज करने लगे तब भविष्य के सुखद होने की कल्पना करना, किसी मगृमारीचिका के पीछे भागने जैसा ही होगा। विकास के सोपान तय करने के शाश्वत सिद्धान्तों की व्याख्या, उसके व्यवहारिक स्वरूप तथा सकारात्मक परिणामों की स्थापना का ज्ञान-विज्ञान हमारे वैदिक ग्रन्थों में भरा पडा है। इसी को जीवन में चरितार्थ करने के सूत्र देने का काम गुरूकुल, आश्रम और शिक्षालयों में किया जाता रहा है। प्रकृति और जीवन को संरक्षित रखते हुए प्रगति-पथ पर दौडने के लिए धारण करने योग्य शिक्षाओं के भण्डार को ही धर्म कहा जाता है।
अनुशासन की बागडोर सम्हालने वाले को धर्माचार्य, अनुशासित नागरिक को धार्मिक और सौहार्यपूर्ण समाज को धर्ममय का संबोधन दिया जाता रहा है। कालान्तर में देश, काल और परिस्थितियों के अनुरूप शाश्वत धर्म को लचीला बनाया जाने लगा। व्यक्तिगत व्यवहार से परम्परा, परम्परा से मान्यता और मान्यता से रूठियों में परिवर्तित हो चुका व्यवहार, वर्तमान में धर्म का मुखौटा लगा बैठा है। धर्म की व्याख्या करने वालों का राजनीति में विधिवत प्रवेश, सम्प्रदाय की धर्म के आवरण में प्रस्तुति, संत बनकर व्यापार की होड में शामिल होने जैसे अनेक प्रश्न विगत कई दिनों से विचारों में उथल-पुथल मचाये थे। तभी फोन की घंटी बज उठी।
फोन पर सूचना मिली कि उत्तर गुजरात के सावरकाठा क्षेत्र में स्थापित संकटमोचन सिद्धपीठ गुमडेर के पीठाधीश्वर आचार्य नवलकिशोर दास जी महाराज हमें याद कर रहे हैं। समय और स्थान निर्धारित हुआ। निर्धारण के अनुरूप हम आमने-सामने थे। हमारे अभिवादन को उन्होंने मुस्कुराते हुए ऊँ नारदाय नमः के उच्चारण के साथ स्वीकार किया। वे हमें पत्रकार होने के नाते हमेशा नारद जी कहकर ही सम्बोधित करते हैं। हमने भी सिर झुकाकर उनकी इस स्वीकारोक्ति को अंगीकार किया। कुशलक्षेम पूछने-बताने के बाद चर्चा का दौर शुरू हुआ। मन में चल रहे विचारों के उथल-पुथल को प्रश्नों का रूप देकर प्रस्तुत किया। सतयुग के गुरू वृहस्पति, त्रेता के गुरू विशिष्ठ और विश्वामित्र, द्वापर के द्रोणाचार्य और कृपाचार्य, कलयुग के गुरू चाणक्य आदि को रेखांकित करते हुए उन्होंने कहा कि हर युग में संत ने अपनी तपस्या से प्राप्त ज्ञान-विज्ञान को समाज हित में ही लगाया है।
राज-तंत्र को शिक्षित-प्रशिक्षित किया है। नीतियों के अनुपालन हेतु संकल्पित कराया है। समदर्शी, न्यायनिष्ठ और लोकहितकारी रहने का वृत दिया है। विकास के मापदण्डों को जीव और प्रकृति के हितों के साथ सामंजस्य स्थापित करते हुए व्यवहार में लाने की वचनवद्धता दिलाई है। संत ने हमेशा राज-सुख, धन-सुख, वैभव-सुख, इन्द्रीय-सुख का परित्याग किया है। लोक-हित के लिए परमार्थ के साथ सामंजस्य स्थापित कर स्वयं के भौतिक शरीर की आहुति ही दी है। स्वः का तंत्र स्थापित कर पर के तंत्र का बहिस्कार किया है। तभी तो वहा परम-सुख का अधिकारी बना है। हमने बीच में ही टोकते हुए धर्म की प्रचलित परिभाषा की ओर उनका ध्यानाकर्षित किया। संस्कृत के श्लोक द्वारा धर्म की शाश्वत व्याख्या को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा कि विश्व के किसी भी धर्म में वैमनुष्यता, शोषण, अमानवीयता और हिंसा को कोई स्थान नहीं दिया गया है। कुछ स्वार्थी तत्वों ने चन्द चाटुकारों की फौज खडी करके पहले धर्म की परिभाषा को विकृत किया और फिर स्वयं को ठेकेदार बनाकर स्थापित करने के प्रयास शुरू कर दिये। ऐसे लोग न तो जीवन के अनुशासन को जानते हैं और न ही जीवनदाता के मर्म को।
सांसों के व्यापार में लगी मानवीय काया ने जन्म के आधार पर व्यवहार, व्यवस्था और विकृतियां स्वीकार लीं और करने लगे अन्मुक्त आचरण। ऐसे में धर्म के बाह्य आडम्बर में लुप्त होता जा रहा है शाश्वत चिन्तन। आस्था केन्द्रों के साथ व्यापारिक गतिविधियों के समावेश पर उन्होंने स्पष्ट किया कि ऐसे लोग देहभान से मुक्त न होकर शारीरिक-सुख की चाह में लोक-हित का दिखावा कर रहे हैं। समाज-हित के नाम पर स्वयं को वैभव की होड में शामिल कर रहे हैं। अहम की संतुष्टि के उपाय खोजने वाले अतिमहात्वाकांक्षी कभी संत हो ही नहीं सकते और न ही समाज को उन्हें संत की मान्यता देना चाहिये। चर्चा चल ही रही थी कि उनके एक शिष्य ने आकर अवगत कराया कि अनेक गणमान्य लोग काफी देर से दर्शनार्थ अनुमति की प्रतीक्षा में हैं। अपनी जिग्यासा के समाधान में हमने महाराज जी का काफी समय ले लिया था। समाधान का अधिकांश हिस्सा हमें प्राप्त हो चुका था।
सो इस विषय पर फिर कभी विस्तार से चर्चा के लिए आने का आश्वासन दिया और प्रस्थान की अनुमति मांगी। उन्होंने अपने पूजा स्थान में रखे विशेष प्रसाद में से एक बडा भाग हमें आशीर्वाद के साथ प्रदान करते हुए शीघ्र ही पुनः मिलन की अभिलाषा के साथ ऊँ नारदाय नमः का उच्चारण किया। प्रणाम की मुद्रा में हमने भी उन्हें सिर झुकाकर अभिवादन किया। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नये मुद्दे के साथ फिर मुलाकात होगी। तब तक के लिए खुदा हाफिज।
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