अधिकारियों की संवेदनहीनता से उपजे हैं देवभूमि में विनाशकारी संकेत |
भविष्य की आहट / डा. रवीन्द्र अरजरिया
उत्तराखण्ड का जोशीमठ संकट के बादलों में घिर चुका है। प्रकृति के साथ खिलवाड करने का खामियाजा सामने आ रहा है। नौकरशाहों की मनमानी का उदाहरण कष्टदायी परिस्थितियों के रूप ठहाके लगा रहा है। जनसामान्य को सुविधायें मुहैया कराने के लिए सरकारें हमेशा से ही कटिबध्द रहीं हैं। सुविधाओं के लिए मसौदा तैयार करने वाले वरिष्ठतम अधिकारियों की फौज परियोजना के लिए तकनीकी संसाधनों के माध्यम से सर्वे करती है। विशेषज्ञों के साथ सलाह-मशवरा करके चरणवध्द कार्यक्रम तैयार किया जाता है। बजट निर्धारित होता है।
परियोजनाओं के सभी पहलुओं का गहराई तक मंथन किया जाता है। इस हेतु भारी भरकम वेतन लेने वाले वरिष्ठ और वरिष्ठतम अधिकारियों की अनगिनत संख्या है तिस पर भी अतिरिक्त सलाह हेतु अतिविशिष्ट विशेषज्ञों को मोटे मेहनताने पर आयातित किया जाता है। अनगिनत विभागों की मंजूरी, अनापत्ति प्रमाण पत्र, सहयोग, सहायता और परामर्श लिया जाता है ताकि परियोजना पूरी तरह से कल्याणकारी साबित हो। सभी विभागों में करोडों की तनख्वाय इस आशय से बांटी जाती है कि कार्यरत अधिकारी-कर्मचारी अपने दायित्वों का सही ढंग से निर्वहन करेगें। मगर मनमानियों, स्वार्थपरिता और व्यक्तिगत लाभ के मकडजाल को बुनने में तल्लीन अधिकांश नौकरपेशा लोग अब नौकरशाह बनकर अपने, अपनों और आसपास का हित साधने में तल्लीन हैं। जोशीमठ तो केवल आने वाले कल का एक संकेत मात्र है। जब नियमों के विरुध्द जोशीमठ में निर्माण कार्य चल रहा था तब उत्तरदायी अधिकारियों का कर्तव्यबोध कहां चला गया था।
जब एनटीपीसी की परियोजना के लिए जोशीमठ का निर्धारण किया जा रहा था तब विशेषज्ञों का ज्ञान कहां चला गया था। जब सडक के चौडीकरण करने की योजना को मूर्तरूप देने की प्रक्रिया प्रारम्भ होना थी तब पहाडों की वास्तविक स्थिति को नजरंदाज क्यों कर दिया गया था। पहाडों का गहराई से सर्वे किये बिना ही सुरंगों के निर्माण की मंजूरी क्यों दे दी गई थी। स्थानीय लोगों ने शुरूआत से ही विरोध के स्वरों को मुखरित क्यों नहीं किया था। ऐसे अनगिनत प्रश्न हैं जिनके उत्तरों की तह तक पहुंचे बिना सुरक्षित भविष्य की कल्पना मात्र कल्पना बनकर ही रह जायेगी। किसी भी परियोजना को मंजूरी देने के पहले उसके प्रत्येक पक्ष पर गहराई तक विवेचना करने, सभी पहलुओं की समीक्षा करने तथा आवश्यक तकनीकी जांच करने का प्राविधान होता है। इस पूरी प्रक्रिया पर अच्छी खासी धनराशि व्यय होती है। परियोजना की अनेक स्तरों पर जांच, प्रतिजांच और अंत में समग्र जांच करने का प्राविधान है परन्तु परियोजनाओं को बनाने वाले, उनके क्रियान्वयन करवाये वाले तथा वाहवाही लूटने वाले अपने-अपने हितों को साधने में जुटे रहते हैं।
कार्य की गम्भीरता से कहीं अधिक लाभ के अवसर तलाशने में तल्लीन प्रशासनिक तंत्र अपने ढंग से सरकारों की मंशा को मोडने में पूरी तरह सक्षम है। पांच साल के लिए आने वाली सरकार पर हमेशा ही स्थार्ई अधिकारी-कर्मचारी हावी रहते हैं। मंत्रियों को विषय विशेषज्ञों की राय पर चलने की बाध्यता होती है। तकनीकी ज्ञान का अभाव होने के कारण सरकारों के ओहदेदार कभी भी अधिकारियों के जाल से बाहर नहीं हो पाते। ऐसे में आम आवाम को सरकारों की मंशा तथा अधिकारियों की कार्य कुशलता का मूल्यांकन करना चाहिए। मगर ऐसा न होकर परियोजनाओं की सफलता और असफलता के लिए केवल और केवल नेताजी को ही जिम्मेदार ठहराया जाता रहा है। ईमानदार करदाताओं के करोडों रुपये से निर्धारित की जाने वाली परियोजनाओं की असफलता के लिए शायद ही कभी किसी अधिकारियों पर दण्डात्मक कार्यवाही की गाज गिरी हो। उत्तरदायी अधिकारियों का खामियों के लिए एक पायदान ऊपर के अधिकारी को जांच हेतु दायित्व सौंपा जाता है और परिणाम वही ढाक के तीन पात ही निकलता है। स्थाई अधिकारी-कर्मचारी संघ जिन्दाबाद। आने वाले कल को वही आरोपी अधिकारी ही तो एक पायदान ऊपर चढकर वरिष्ठ अधिकारी की कुर्सी पर आसन जमायेगा।
ज्यादा हो हल्ला होने पर किसी संविदाकर्मी या किसी निजी कम्पनी को बलि का बकरा बना दिया जाता है। गणतंत्र की व्यवस्था को संविधान के निर्माण के दौरान ही इतनी लचीला बना दिया गया था कि अनुशासन के कवच को आसानी से भेदा जा सके। आज कर्तव्य और दायित्वों जैसे शब्दों ने स्थाई अधिकारियों-कर्मचारियों के पास पहुंचते-पहुंचते दम तोड दी है। संविदाकर्मियों को व्यक्तिगत गुलाम मानने वाले स्थाई अधिकारी-कर्मचारी अब मनमानियों के आसन पर बैठकर लाभ का हुक्का गुडगुडा रहे हैं। सरकारी महकमों में भर्ती के दौरान मिलने वाले नियुक्ति-पत्र पर स्पष्ट रूप से गवर्नमेंट सर्वेंट यानी कि सरकारी सेवक लिखा होता है जबकि पद सम्हालते ही वह केवल और केवल अधिकारी बनकर बैठ जाते है। सेवा का भाव पर्दे के पीछे कहीं छुपकर अपनी बद्किस्मती पर आंसू बहाता हुआ किस्तों में कत्ल होकर अपनी अंतिम यात्रा तक पहुंचता है। उदाहरण सामने है कि दिल्ली के कंझावला केस ने जब तूल पकडा तब केन्द्र सरकार के दखल के बाद पुलिस विभाग के आला अफसरों को मजबूरन 11 पुलिसकर्मियों को सस्पेंड करना पडा जिसमें दो सब-इंस्पक्टर, चार असिस्टेंट सब इंस्पक्टर, चार हैड कांस्टेबल और एक कांस्टेबल शामिल हैं।
इतने दिनों तक विभाग को अपने अधिकारियों-कर्मचारियों की मनमानियां क्यों दिखाई नहीं दीं। एक चश्मदीद डिलेवरी मैन ने जब मानवता के सहारे उत्तदायी पुलिसकर्मियों को जगाने की कोशिश तो उसे ही प्रताडित करने किया गया। चश्मदीद ने मीडिया के सामने अपनी बात रखी। उसके बाद भी विभाग की कान पर जूं भी नहीं रैंगा। उत्तरदायी अधिकारियों-कर्मचारियों पर केन्द्र सरकार की गाज गिरने के बाद अब वह चश्मदीद स्वयं को बेहद असुरक्षित महसूस कर रहा है। उसे डर ही कि विभाग के अन्य लोग उससे जरूर ही अपने साथियों के सस्पेंड होने का बदला लेंगे। इस काण्ड में प्रथम दृष्टा मिले उत्तरदायी लोगों के विरुध्द प्राथमिक कार्यवाही से तो देश अवगत हुआ है परन्तु विभागीय जांच के परिणामों का शायद ही खुलासा हो। ऐसी ही कम-ज्यादा स्थिति देश के हर कोने में देखने-सुनने को मिल रही है मगर हर जगह न तो मीडिया के बडे घरानों के कैमरे पहुंचते हैं और न ही समाज सेवा के नाम पर स्वयं की पीठ थपथपाने वाले नामीगरामी लोग।
देश में अनेक नौकरशाहों के चाबुकों से लहूलुहान हो रहा आवाम अब द कश्मीर फाइल्स के खून सने चावल खाने को विवश हो रहा है। पांच साल तक चलने वाली अनेक सरकारों को अपनी अंगुलियों पर घुमाने वाले स्थाई अधिकारियों-कर्मचारियों को दोषी होने के बाद भी तत्काल सेवा से मुक्त नहीं किया जा सकता है। संविधान की व्यवस्था के तहत विभागीय अपील से लेकर न्यायालयीन प्रक्रिया तक के अनेक चरणों को पार करना पडता है जिसमें लम्बा समय गुजर जाता है। दिल्ली के कंझावला केस की व्यवहारिक स्थिति से जोशीमठ के वर्तमान हालातों के लिए जिम्मेवारी तय की जा सकती है। यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि अधिकारियों की संवेदनहीनता से उपजे हैं देवभूमि में विनाशकारी संकेत जिनको रेखाकिंत करते हुए आने वाले कल के प्रति सजग होना बेहद आवश्यक है तभी पहाड बच सकेंगे, देश बच सकेगा और बच सकेंगे देशवासी। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।
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